शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

चिनबारक दीप

समस्तीपुर में गाड़ी बदली कऽ महेसरी अइमे बैसलि सरिया कऽ। आब घर बेसी लग आयल जाइत छैक। चारि टीसन आ छैक, फे तऽ टीसन सऽ एक कोस जमीन हैतै। चारि-पाँच गोटाक हेंज छैक्। बौआइत-बतियाइत गाम पहुँचि जयतै। आठे दिनुका दिन छैक, की सब करतै? एह, करऽक की छैक? सभटा बस्तुजात तऽ कीननहिं जाइत छैक। नबका अटैची के राग तर नीक जऽका दाबि लेलकै। डिब्बा मह’क सभटा यात्री तऽ भरि दिनुक चीन्हले-जानल छैक। भतीजीक विवाह छैक से गाम जाइत छैक। ओ अगिले टीसन पर उतरि जयतैक। ताहि सऽ बगलबला बाबू कोनो लड़िकाक उदेस में पटना गेल छलैक्। आ गेट लग ठाढ बाबू भारी गुम्मा छैक। टोकलो पर नै बजै छैक। कोन टीसन जैतै, की करतै। एक्को बेर मुँह पर मुसकियो ने अयलै। ठोरो नै पटपटौलकै। “बाप रे बाप, एतीकाल धरि जौं हम चुप रहि जाई त मुंहे फरि जायत। गे दाई!” मोने-मोन विचारलक। मोन भेलै कहै – “हो बाबू, निम्मन से बैठू ने, हबा नै लगइये”। मुदा चुप्पे रहल।

महेसरीक घरबला एकटा कुमारि आ एकटा बियाहलि बेटी लऽ कऽ गामे में रहै छलै। जवानी समय में रिक्शा चलबैत रहै आ महेसरी दाइक काज करैत रहय। सुख सऽ रहय। ससुर मुइलैक तखन जमीन बाँट-बखरा भेलै आ बिगहा डेढक एकरो हिस्सा भेलैक। ससुर जा जिबैत छलै एकटा खुद्दियो नई परि लागऽ देलकै। नबकी बहु संग सभटा जमीन लऽ कऽ आतरि-चातरि भेल रहैक। मुइला पर कामति गाम नहिं छोड़ैत छल। एकटा बेटीक बियाह तऽ पहिने कयने रहे, दोसर बेटिक बियाहक सरंजाम जुटबऽ लेल महेसरी गाम छोड़ि पटना सेवने छल। पटना में मारे इतियौत-पितियौत भाइ-बहिन सभ रहैत छैक। तकरे संगे रहि छौ डेरा में चौका-बर्तन करैत अछि महेसरी।

“हे गे बहिन, अपन समान सब ठीक सऽ रखिहैन आब। अइ गाम जाएबला गाड़ी में ने बिजली छै ने बत्ती”। -- सगबे भाइ कहकै।
“ठीक से हय हमर समान”। -- महेसरी घोकरी लगा लेलक।
“है तऽ सेहे”। -- दोसर भाइ बजलै।
“रे बाबू गरीब आदमी छी, डेरा में कमा कऽ जमा कैली इ सब सरंजाम के लेत हमर समान?”
“की सभ समान? तोरा सभ के तऽ बेसी लगै छऽ नहिं” – सामनेबला बाबू पुछलखिन।
“यौ बाबू, हमर जे जमाय हय ने, से दमकल के मिस्तिरी हय। तनी-मनी जमीनो-जाल है मरदाबा के। से ओक्कर मुंह बड़का गो है। घड़ी-साइकिल-रेडियो। लत्तो-कपड़ा खपसूसरत कहै छै”।
“तऽ देबही से सब?” – दोसर यात्री पुछलखिन।
“हँ सरकार, एगो मलकीनि है, से हरदम डिल्ली जाइत रहै छै, कल-पुरजा के कारबार हई। ओकरे से घड़ी आ रेडियो मंगबेलियै। पटना से आधा दाम में हो गेलै”।
“बाह, तखन तऽ लेलहक समान”।
“त ए सरकार, एगो मलकिनिया हय मरबारिन। तऽ ओकर बक्सा में कोंचल हय रंग-बिरंग के सरिया। ऊहे हमरा एगो जरी के काम कएल साड़ी देलक। पीयर टूह। हम कहली जे होली-दसहारा के साड़ी न दिऊ, ई साड़ी दे दिऊ। आ बाकी मलकिनियाँ सब से साड़ी ले-ले कऽ रखले रही से सब ले जाइ छी। बेटी के सांठे के न परबाह हय”।
आ लड़का के कपड़ा? से तऽ कीनने हेबहऽक”? --- बाबूक जिज्ञासा रास्ता कटबाक साधन सेहो छलनि।
“लड़िका के कपरा किन लेलियै। बेटी के लेल एगो पायल आ बालचानी के किनलियै। बड़ा महग हो गेलै…”।

दरबज्जा लग ठाढ अरुणक कान में सभटा पड़ैत छैक आ कनपट्टी पर धम-धम होमय लगैत छैक। आइ तीन बरख पर गाम जा रहल अछि अरुण। बाबू बीमार छथिन आ बहिनक द्विरागमन हेतै। बाबू बड़ कलपि कऽ लिखने छथिन आबऽ लेल। सरंजामक ओरियान कऽ नेने छथिन, खाली घड़ी आ रेडियो तों नेने अबिहक --- से बाबू लिखने छलखिन। अपना जेबी के टेबलक अरुण। मात्र डेढ सै टाका छैक। एकटा निसास छोड़लक। गाम में बीए पास कऽ क बैसल रहय तखन बाबू केहन-केहन कटुक्ति सब कहि मोन बताह कैने रहथिन। एत्तुका लोक के नोकरी भेटै छै कि नय? अरुण सबटा बर्दाश्त कऽ खेत-पथार जाइते रहल। एक्केटा पुत्र रहथिन। बूझथि बाबू स्नेह सऽ कहैत छथि। कनियाक द्विरागमन भेला पर अरुण के कटुवचन अखरय लगलनि। बाबू दिनानुदिन बेसी कटु भेल जाइत छलखिन। माय सेहो थारी संग पहिने उपदेश पाछा उलहन आ आब गारि परसऽ लागल छलथिन। तखन अरुण हारि कऽ गाम छोड़ि देलक। तीनटा ननदि सबहक बीच एकटा भाउजि अरुणक कनिया नैहर चल आयलि छलीह। आ एमहर-ओमहर एँड़ी घसैत अरुण कोनो खानगी व्यापारी ओतय टाइपिस्ट भऽ गेल छलाह। कनिया सेहो संगे रहय लागल छलखिन। छौ मास पहिने कनिया के एकटा बच्चा नष्ट भऽ गेल छलनि। ओ अत्यन्त रुग्ण भऽ गेल छलखिन। अरुणक सीमित आमदनी ओही में स्वाहा भऽ जाइत छलनि। कतेक पाइ हथपैंच भऽ गेल छलनि।

“दुनू परानी मिलि कऽ कमयली ए बाबू, तब न बेटी के आइ साँठ-राज करै छी। की बरक-बरका लोक करत ऐसन साँठ-राज”। --- महेसरी जोर-जोर सऽ बजै छल। आ अरुणक कान में अपना कनियाक कुहरनाइ धमकऽ लगलनि। कोनो काजक नहिं छथि। अरुण मोनेमोन विचारय लागल। गामक साधारण घरऽक बेटी छथि, मुदा दुनू बेकतीक काजो नै सपरै छनि। मोनेमोन खौंझाहटि उठलनि। फेर विचारय लगलाह। ओहि में हुनकर कोन दोख। जेहने शिक्षा-दीक्षा भेटतनि तेहने बुद्धि-अक्किल हेतनि। बिसरल-भटकल कत्तहुँ सऽ कहियो कोनो चिट्ठी अबै छलनि। परसू चिट्ठी भेटलनि बाबूक तऽ बड्ड अचरज भेलनि। क्षणहि में अचरज बिला गेलनि। छोटकी बहिन प्रमिलाक द्विरागमन में बच्चा आ कनियाँ के बाबू बजौने छथिन। अरुण पत्र पढि चिन्तित भऽ उठल छल। कतऽ सऽ ओ बाबूजीक फरमाइश पूरा करथिन?

“ई पहिले पहिल बाबू मुँह खोलि कऽ किछु मंगलनि अछि। की करबैक”? – पत्नी सारगर्भित विचार प्रकट कैलथिन।
“हुनका मंगबाक आवश्यकता की छलनि?” – अरुण कहने छलखिन।
“तें ने, आब भेलनि अछि तऽ मंगैत छथि। जैयौ, सर सरंजाम सेहो करऽ पड़त” – कहलखिन पत्नी। अरुण सक किछु पार नै लगलै तऽ अपने पेटी में सऽ नूआ बहार कऽ ननदि लेल देलखिन आ नोर पोछैत विदा कयलखिन।
“लोक की कहत? अन्तिम ननदिक दुरागमन छल” --- भरल कंठ सऽ बजली।
“की कहत? हम नै लऽ जाएब। हमहीं जाइ छी से बहुत करै छी” – डपटि देने छलखिन अरुण।

आ डेढ सै टाका जेबी में नेने जाइ छथि। जिद्द करथिन तऽ अपना हाथऽक घड़ी दऽ देथिन। आर की? लोक की कहतै? गामक लोकक सोझाँ कोन मुँह देखौथिन। ई साधारण दाइ-खबासिनी घड़ी आ रेडिओ नेने जाइ छै। मुदा अरुण की करतै। एकर पत्नी तऽ परिवार में दाइक पाइ बचौतैक ताहू जोग नहिं छैक। बाबू गामहि रहऽ दितथि …तऽ की? कोना रहय दितथि, लोक की कहितैन। फेर ओएह गाम, समाजक लोक आ लोकापवाद चारुकात सऽ घेरि लैत छैन। बीए पास कऽ कऽ गाम में घरुला बनल छथि। आ लैह। रहऽ शहर में। करह नोकरी। एकटा बेटा, माय-बाप कतहु, अपने कतहु। ऐ बेर तऽ बाबूक चिट्ठी में स्वर बड़ कमजोर बुझना गेलनि। रुग्ण छथि, आब होएत होतनि बेटा संगे रहितौं। किंवा बेटेक संगे अपने रहथि।

महेसरीक गर्वोक्ति सुनि-सुनि अरुणक खून गरम होबय लगैत छनि। दृष्टि महेसरीक राग तर दाबल अटैची पर जाइत छनि – नव ललौन अटैचीक चमकैत हैन्डिल एम्हरे छैक। ओइमें घड़ी आ रेडियो छैक, चानीक पायल आ दोसर बस्तु-जात सभटा छैक। के जानय महेसरी ई सब मालिक-मलिकाइन सबहक ओतय से चोरा कऽ जमा केने हो, के जानए। ई सब बड्ड चालाक होइत अछि। विचारलनि अरुण – फुसिये ठकि रहल अछि जे छौ-छौ डेरा में काज करैत छी। खाली फाजिल गप्प। जरुर ई चोरौने जाइ छैक। कहुना लऽ जाइ छै। अरुण तऽ कहुनो नय नेने जाइत छथि। गाम में माय-बाप आ बहिन रास्ता तकैत हेतैनि – अरुण औताह आ सबटा दुःख दूर कऽ देता। स्वर तऽ तेहने रहनि पिताक पत्रक। एकटा छोट-सन स्टेशन आर तकर बाद अरुणक स्टेशन । वस्तुत: दुनू स्टेशनक बीचहि में अरुणक गाम पड़ै छनि। एक बेर फेर अरुणक दृष्टि महेसरीक अटैचीक हैन्डिल पर पड़लनि। एक झटका में अटैची घीचि तेज होइत गाड़ी स अरुण उतरि कऽ पड़ा जाथि तखन की? विचारैत काल शरीर में रक्त तेजी सऽ दौड़य लगलनि। स्टेशन पर सऽ गाड़ी ससरऽ लगलै। अरुण अझक्के अटैची घीचि लेलखिन। महेसरी मुंह बौने रहि
गेल। छि: ई की करै छी हम? एकटा चौका-बरतन करऽवाली स्त्रीक सामग्री चोरबै छी? ई विचारि मोन में अबिते अरुणक आगू बढल पैर ठमकि गेलनि। मुँह बौने महेसरी आ आगू बढैत ओकर संगबे अन्हार में तकित रहलै आ अरुण अटैची महेसरीक कोरा में पटकि एकटा खाली हँसी हँसऽ लागल।

“एह, हम तोरा ई बुझबा लेल अटैची घिचलिअऽ जे खाली बात पर नहि रहऽ समानक रक्षा सेहो करऽ।“
“ए बौआ, हमर तऽ जिउए हाथ हेरा गेल। बड़ कठिन कमाइ के है” – महेसरी कँपैत स्वर में कहलकै।
“नहिं नहिं, डेरै के बाते नै छै, बाबू देखतहिं सुधंग लगै छथिन” – ठिसुआएल एकटा संगबे बजलै महेसरी सऽ।

अपन अशुद्ध मोन पर संस्कारी शुद्ध मोनक विजय बड़ सुखकर लगलै अरुण के। जाड़ो में पसीना छुटि गेलै। तरहत्थी भीज गेल छलै। कंठ सुखा गेलै। मुदा माथ एखन खाली छलै। एकदम्म शून्य। किछु नै छलै। गाड़ी दोसर स्टेशनऽक लग आबि गेल छलै। पुक्की पारय लगलै। अन्हार दिस तकैत अरुणक आँखि एकटा खोपड़ीक चिनवार पर चलि गेल। चिनवार पर दीप जरै छलै।












लेखिका: उषाकिरण खान (1981), मैथिली कथा संग्रह “तर्जनी” स साभार, भाखा प्रकाशन, पटना (1989), संपादक मोहन भारद्वाज
















1 टिप्पणी:

Gajendra ने कहा…

बड़ नीक प्रस्तुति अछि ठाकुरजी।
बच्चा रही तँ बृहस्पति आ' रविकेँ पटना आकाशवाणीसँ साढ़े पाँच बजेसँ छह बजे धरि मैथिलीक कार्यक्रम होइत छल, ओहिमे उषाकिरण खानक कथा हुनके मुँहसँ सुनबाक अवसर प्राप्त होइत छल। सैह मोन पड़ि गेल।
গজেন্দ্র ঠাকুব